बुधवार, मार्च 16, 2011

शाइस्तगी....


तुम जब भी तनहा होते हो, तुम मुझको सोचा करते हो,
वो एक पुराना नगमा है, जो गाते हो और रोते हो...

मै एक कहानी लिखता हूँ, और चुपके से सो जाता हूँ,
तुम अश्कों की बरसातों में हर रोज़ नहाया करते हो॥

हम परवानों की उल्फ़त पे तो कई क़सीदे पढ़े गए,
कोई क्या जाने वो दर्द-ए-जलन जो शम्मा बनकर सहते हो...

तुम शर्म की नाज़ुक गठरी हो, तुम तहजीबों के हामी हो,
आँखों में मेरा अक्स बसा, खुद पर्दों में गुम रहते हो.....
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(करीब १२ साल पहले लिखी थी ॥)
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